घाटी का दर्द (Hindi)

 वाह! कितनी हसीन, 
कितनी खूबसूरत,
यहीं कहीं रहती है जन्नत, 
बोल उठते लब, 
आते हो यहाँ पर तुम जब।
नहीं कोई गलती तुम्हारी,
ये शोख वादियां, हैं ही प्यारी।
हाँ मुझसे ही- हाँ मुझसे ही,
प्रकृति ने रंग उधार लिये,
मैं अपने भीतर
एक गूढ़ रहस्यमय इतिहास लिये।
मुख मण्डल हूँ, माँ भारत का, 
पश्मीना ओढे बैठी हूँ।
सुन सको तो, मेरी भी सुनो,
कुछ अपनी मैं कहती हूँ।
जन्नत मुझमें है... कहाँ? 
मेरे भीतर बस धुआँ -धुआँ।
मैं भारत का ही एक भाग,
मेरे टुकड़े-टुकड़े हो रहे आज।
एक आजाद और एक गुलाम,
यही तो रखा मेरा नाम।
चिनाब, झेलम, सिंधु का पानी,
रक्तपात की कहे कहानी।
डल, वुलर और नगीन में बहती, 
मेरे अश्रु धारा,
तीन सौ सत्तर में रखा मुझे, 
मुझ संग क्यों? ये अलग विचारधारा।
आखिर क्यों ये बर्ताव? 
मुझ से ही क्यों अलगाव? 
घुट रही है घाटी।
एक हसीना के भाँति, 
दो आशिकों में जा रही, 
बाँटी-बाँटी।
हे रहीम! हे राम! आन लगाओ युद्धविराम।
खूबसूरती मुझे क्यों बख्शी? 
मेरी धवल देह के खातिर, 
लहूलुहान होती है धरती।
शालीमार के फूलों को, बस मत ताँको,
कभी मेरे भी भीतर, झाँको।
लो कभी खैरियत मेरी, 
महसूस करो घाटी की पीर।
अपने हाथों ही खींच रहे, 
क्यों भारत माँ का चीर।
कश्मीरियत को समझो, 
समझो मेरी चुभन,
लाखों किस्से ,कर रखे, 
अपने में मैंने कहीं दफन।
जो बाहर देख रहे हो, 
वो केवल है एक तस्वीर,
सफेद चादर के अंदर लेटा, 
एक रक्तिम कश्मीर।
हरे भरे है, अभी भी, 
तिहत्तर और निन्यानवे के जख्म,
अमन और अहिंसा की, 
लगा दो मुझे मरहम।
मत लाओ गर्म बयारे, 
रहने दो, ये ऋतु सर्द।
सुन सको तो सुनो कभी, 
घाटी का ये दर्द
घाटी का ये दर्द।।
                 
    ----पूर्ति वैभव खरे----
Email Pke.av@dbntrust.in

No comments:

Post a Comment

GSI Journal | Sandeep Dutt | Substack

www.GSI.IN

Blog Archive