वाणी का महत्व - धर्मेन्द्र पोद्दार


 
[ अक्सर हमारे मन में यह विचार उत्पन्न होती है कि –हम अपने विचारों और भावों को किस प्रकार अभिव्यक्त करें की वह प्रभावी, आकर्षक, एवं सारगर्भित हो| इस रचना के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि मानव जीवन में “वाणी का क्या महत्त्व” है ]

हमारे समाज में या यों कहें तो हममें से अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते की – क्या.. बोलें..?.. कहाँ..बोलें..?  किससे… बोलें…? कितना… बोलें? क्यों.. बोलें…? क्या बोलना प्रासंगिक है या अप्रासंगिक और फिर बोलने का परिणाम क्या होगा? क्या बोलने के पश्च्यात परिणाम सद् परिणाम होगा या दुष्परिणाम आदि |

मनुष्य के जीवन में असफलता, निराशा, दुःख, विषाद, चिन्ता, कष्ट, कलह, अशांति, नफरत, हिंसा, आक्रोश आदि के कारणों पर यदि गहन चिन्तन करें, तो निष्कर्ष के रूप में हम पायेंगे कि – मानव जीवन की समस्याओं, कष्टों, हिंसा, आक्रोश, नफ़रत  तथा विनाश का मूल कारण उनका जीभ का न दबना अर्थात परिणाम की परवाह किए बिना कुछ भी कह देना होता है | कुछ मनुष्य तो बोलने से पहले अपना विवेक और आत्म नियंत्रण इतना खो देते है, कि उन्हें भले बुरे, उचित, अनुचित, न्याय, अन्याय आदि का ज्ञान तक नहीं रहता, और वे क्रोध और आक्रोश के कारण अपना ही विनाश कर लेते हैं, कभी-कभी तो अपना अस्तित्व ही नष्ट कर लेते हैं |

कई बार तो ऐसा होता है कि वक्ता का कथन अथवा वक्तव्य समाप्त होते ही श्रोता अपनी आत्म नियंत्रण तथा संयम एवं सहनशीलता की सीमा खो बैठता है और परिणाम की परवाह किए बिना, बिना विचारे अनाप-सनाप अथवा मन को ठेस पहुँचाने वाली अथवा दिल को चुभने वाली बात कह देता है | और इसके भयंकर दुष्परिणाम देखने को मिलती है |

इतिहास इस बात की साक्षी रही है कि – महाभारत जैसा सर्वनाशी एवं हृदय विदारक संग्राम इसी जीभ के न दबने के परिणाम स्वरूप ही हुई थी | यदि इतिहास के साक्ष्य के आधार पर विचार करें, तो हम  निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि – यदि द्रोपदी ने दुर्योधन को “अन्धे के पुत्र भी अन्धे होते हैं” जैसी हृदय विदारक अथवा दिल को ठेस लगने वाली या मन को चुभने वाली बात न कही होती और उसके मन को चोट न पहुँचाई होती अथवा उसके हृदय को न दुखाया होता तो शायद दुर्योधन तथा अन्य कौरवों और पाण्डवों के बीच कटुता, नफ़रत, आक्रोश अर्थात दरार पैदा न हुईं होती | और शायद इतना भीषण परिणाम भी न हुआ होता | कौरवों और पाण्डवों के मध्य हुए महासंग्राम और भीषण रक्तपात में अठारह अक्षौहिणी सेना कट मरी थी |
                                                                           
व्यावहारिक जीवन-गत उदाहरण और महाभारत के परिणाम, इन्हीं सब कारणों से से सिद्ध होता है कि – मनुष्य अपनी जीभ पर जहाँ तक हो चौकसी कर सके करें अर्थात अपने वाणी पर नियंत्रण करें और आवश्यकता अनुसार उसको (जीभ) दबा सके तो दबाये, क्योंकि युद्ध हो अथवा जीवन संग्राम किसी भी झगड़े, युद्ध, क्रोध, आक्रोश, नफ़रत आदि का परिणाम विध्वंस ही होता है|

समय-समय पर होने वाले मानव मन के मतभेद, आक्रोश और विध्वंस का कारण वाणी पर नियंत्रण न होना अथवा जिह्वा (जीभ) की स्वच्छंदता ही तो है | इसी के कारण आपसी मनमुटाव, आक्रोश, मतभेद, विद्रोह, घृणा आदि बुराइयाँ जन्म लेती हैं | जिससे समय-समय पर भयंकर  नुकसान तबाही के साथ-साथ मानव अस्तित्व पर खतरे के बादल मँडराने लगते हैं |

क्योंकि मेरी दृष्टि में युद्ध हो या मतभेद अथवा वैचारिक मतान्तर विरोधी अथवा   हारने वाला पक्ष दोनों पक्ष  का तो सर्वनाश तो होता ही है, वह तो एक  इतिहास हो जाता है | किन्तु जितने वाले पक्ष पर पुनः सृजन की जिम्मेदारी तथा उत्तरदायित्व भी होता है, साथ ही युद्ध अथवा कलह का दुष्परिणाम और नुकसान अलग |

अतः मनुष्य यदि अपनी जिह्वा पर संयम रखकर उचित अनुचित का ध्यान रखकर वाणी को अभिव्यक्ति दे तो जिह्वा के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम से बचा जा सकता है |

महान सन्त “कबीर दास” जी ने भी वाणी को अभिव्यक्त करने की सलाह देते हुए कहा है –
            “ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय |
              अपना मन शीतल करे,  औरण को सुख होय ||   
                                                            ||समाप्त ||                             
धर्मेन्द्र पोद्दार
भाषा विभाग प्रमुख, सेक्रेड हार्ट स्कूल, सिलीगुड़ी

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